Monday, 26 September 2022

Navratri Special, Navratri

नौ दिनों में माता के अलग-अलग स्वरुपों की पूजा की जाती है. इन दिनों की अलग-अलग पूजा विधि होती है, जबकि नौ दिनों के लिए अलग-अलग मंत्री भी शास्त्रों में बनाए गए हैं. शास्त्रों के हिसाब से 9 दिनों में इन्ही मंत्रों के साथ माता की पूजा की जाती है. खास बात यह है कि अलग-अलग दिन माता को भोग भी अलग-अलग ही लगाया जाता है. नवरात्रि पर पूजन विधि से जुड़ी पूरी जानकारी अधोलिखित है :-

पहले दिन मां भगवती के प्रथम स्वरूप शैलपुत्री की पूजा की जाती है. दूसरे दिन ब्रह्मचारिणी, तीसरे दिन चंद्रघंटा, चौथे दिन कूष्माण्डा, पांचवें दिन स्कंदमाता, छठे दिन कात्यायनी, सातवें दिन कालरात्रि, आठवे दिन महागौरी और नौवें दिन सिद्धिदात्री के रूप में माता को पूजा जाता है. हर दिन मां के अलग-अलग मंत्रों का उच्चारण करने से मनोकामना पूरी होती है और व्रत सफल होता है. 


1. पहला दिन यानि मां शैलपुत्री:- शैलपुत्री पूजन विधि ( Shailputri Puja Vidhi) :  दुर्गा को मातृ शक्ति यानी स्नेह, करूणा और ममता का स्वरूप मानकर हम पूजते हैं, अत: इनकी पूजा में सभी तीर्थों, नदियों, समुद्रों, नवग्रहों, दिक्पालों, दिशाओं, नगर देवता, ग्राम देवता सहित सभी योगिनियों को भी आमंत्रित किया जाता और और कलश में उन्हें विराजने हेतु प्रार्थना सहित उनका आहवान किया जाता है। शारदीय नवरात्र पर कलश स्थापना के साथ ही मां दुर्गा की पूजा शुरू की जाती है। पहले दिन मां दुर्गा के पहले स्वरूप शैलपुत्री की पूजा होती है. कलश में सप्तमृतिका यानी सात प्रकार की मिट्टी, सुपारी, मुद्रा सादर भेट किया जाता है और पंच प्रकार के पल्लव से कलश को सुशोभित किया जाता है।इस कलश के नीचे सात प्रकार के अनाज और जौ बोये जाते हैं जिन्हें दशमी तिथि को काटा जाता है और इससे सभी देवी-देवता की पूजा होती है।इसे जयन्ती कहते हैं जिसे इस मंत्र के साथ अर्पित किया जाता है “जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी, दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा, स्वधा नामोस्तुते”. इसी मंत्र से पुरोहित यजमान के परिवार के सभी सदस्यों के सिर पर जयंती डालकर सुख, सम्पत्ति एवं आरोग्य का आर्शीवाद देते हैं।
शैलपुत्री पूजन महत्व (Significance of Worshipping Shailputri) :  देवी दुर्गा की प्रतिमा पूजा स्थल पर बीच में स्थापित की जाती है और उनके दोनों तरफ यानी दायीं ओर देवी महालक्ष्मी, गणेश और विजया नामक योगिनी की प्रतिमा रहती है। वहीं बायीं ओर कार्तिकेय, देवी महासरस्वती और जया नामक योगिनी रहती है तथा भगवान भोले नाथ की भी पूजा की जाती है। प्रथम पूजन के दिन “शैलपुत्री” के रूप में भगवती दुर्गा दुर्गतिनाशिनी की पूजा फूल, अक्षत, रोली, चंदन से होती है।

मंत्र: वन्दे वांच्छितलाभाय चंद्रार्धकृतशेखराम्‌।
      वृषारूढ़ां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम्‌ ॥
कलश स्थापना के पश्चात देवी दु्र्गा जिन्होंने दुर्गम नामक प्रलयंकारी अ-सुर का संहार कर अपने भक्तों को उसके त्रास से यानी पीड़ा से मुक्त कराया उस देवी का आह्वान किया जाता है. प्रतिदिन संध्या काल में देवी की आरती होती है. आरती में “जग जननी जय जय” और “जय अम्बे गौरी” के गीत भक्त जन गाते हैं.


2. दूसरा दिन यानि मां ब्रह्मचारिणी: दूसरे दिन मां ब्रह्मचारिणी की पूजा की जाती है. नवरात्र पर्व के दूसरे दिन मां ब्रह्मचारिणी की पूजा-अर्चना की जाती है। साधक इस दिन अपने मन को माँ के चरणों में लगाते हैं। ब्रह्म का अर्थ है तपस्या और चारिणी यानी आचरण करने वाली। इस प्रकार ब्रह्मचारिणी का अर्थ हुआ तप का आचरण करने वाली। इनके दाहिने हाथ में जप की माला एवं बाएँ हाथ में कमण्डल रहता है।मां दुर्गाजी का यह दूसरा स्वरूप भक्तों और सिद्धों को अनन्तफल देने वाला है। इनकी उपासना से मनुष्य में तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार, संयम की वृद्धि होती है। जीवन के कठिन संघर्षों में भी उसका मन कर्तव्य-पथ से विचलित नहीं होता।मां ब्रह्मचारिणी देवी की कृपा से उसे सर्वत्र सिद्धि और विजय की प्राप्ति होती है। दुर्गा पूजा के दूसरे दिन इन्हीं के स्वरूप की उपासना की जाती है। इस दिन साधक का मन ‘स्वाधिष्ठान ’चक्र में शिथिल होता है। इस चक्र में अवस्थित मनवाला योगी उनकी कृपा और भक्ति प्राप्त करता है।
मां दुर्गा के ब्रह्मचारिणी स्वरूप की पूजा विधि:  देवी ब्रह्मचारिणी जी की पूजा में सर्वप्रथम माता की फूल, अक्षत, रोली, चंदन, से पूजा करें तथा उन्हें दूध, दही, शर्करा, घृत, व मधु से स्नान करायें व देवी को प्रसाद अर्पित करें। प्रसाद के पश्चात आचमन और फिर पान, सुपारी भेंट कर इनकी प्रदक्षिणा करें। कलश देवता की पूजा के पश्चात इसी प्रकार नवग्रह, दशदिक्पाल, नगर देवता, ग्राम देवता, की पूजा करें। देवी की पूजा करते समय सबसे पहले हाथों में एक फूल लेकर प्रार्थना करें-

मंत्र: दधाना करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलू।
      देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा॥

इसके पश्चात् देवी को पंचामृत स्नान करायें और फिर भांति भांति से फूल, अक्षत, कुमकुम, सिन्दुर, अर्पित करें देवी को अरूहूल का फूल व कमल बेहद प्रिय होते हैं अत: इन फूलों की माला पहनायें, घी व कपूर मिलाकर देवी की आरती करें।
“मां ब्रह्मचारिणी का स्रोत पाठ”

तपश्चारिणी त्वंहि तापत्रय निवारणीम्।
ब्रह्मरूपधरा ब्रह्मचारिणी प्रणमाम्यहम्॥
शंकरप्रिया त्वंहि भुक्ति-मुक्ति दायिनी।
शान्तिदा ज्ञानदा ब्रह्मचारिणीप्रणमाम्यहम्॥

“मां ब्रह्मचारिणी का कवच” 
त्रिपुरा में हृदयं पातु ललाटे पातु शंकरभामिनी।
अर्पण सदापातु नेत्रो, अर्धरी च कपोलो॥
पंचदशी कण्ठे पातुमध्यदेशे पातुमहेश्वरी॥
षोडशी सदापातु नाभो गृहो च पादयो।
अंग प्रत्यंग सतत पातु ब्रह्मचारिणी।


3.तीसरा दिन यानि मां चंद्रघंटा: तीसरे दिन मां चंद्रघंटा को पूजा जाता है. नवरात्र का तीसरा दिन भय से मुक्ति और अपार साहस प्राप्त करने का होता है। इस दिन मां के चंद्रघंटा स्वरुप की उपासना की जाती है। इनके सिर पर घंटे के आकार का चंद्रमा है। इसलिए इन्हें चंद्रघंटा कहा जाता है। इनके दसों हाथों में अ-स्त्र-शस्त्र हैं और इनकी मुद्रा युद्ध की मुद्रा है। मां चंद्रघंटा तंभ साधना में मणिपुर चक्र को नियंत्रित करती है और ज्योतिष में इनका संबंध मंगल ग्रह से होता है।
ऐसे करें पूजा : मां चंद्रघंटा , जिनके माथे पर घंटे के आकार का एक चंद्र होता है. इनकी पूजा करने से शांति आती है, परिवार का कल्याण होता है. मां को लाल फूल चढ़ाएं, लाल सेब और गुड़ चढाएं, घंटा बजाकर पूजा करें, ढोल और नगाड़े बजाकर पूजा और आरती करें, शुत्रुओं की हार होगी। इस दिन गाय के दूध का प्रसाद चढ़ाने का विशेष विधान है। इससे हर तरह के दुखों से मुक्ति मिलती है।

मंत्र:पिण्डजप्रवरारूढ़ा चण्डकोपास्त्रकेर्युता।
     प्रसादं तनुते मह्यं चंद्रघण्टेति विश्रुता॥


4. चौथा दिन यानि मां कूष्माण्डा: चौथे दिन मां कूष्माण्डा की पूजा की जाती है.नवरात्र के चौथे दिन मां पारांबरा भगवती दुर्गा के कुष्मांडा स्वरुप की पूजा की जाती है। मान्‍यता ये है कि जब सृष्टि का अ-स्तित्व नहीं था, तब कुष्माण्डा देवी ने ब्रह्मांड की रचना की थी।अपनी मंद-मंद मुस्कान भर से ब्रम्हांड की उत्पत्ति करने के कारण ही इन्हें कुष्माण्डा के नाम से जाना जाता है इसलिए ये सृष्टि की आदि-स्वरूपा, आदिशक्ति हैं। देवी कुष्मांडा का निवास सूर्यमंडल के भीतर के लोक में है जहां निवास कर सकने की क्षमता और शक्ति केवल इन्हीं में है। इनके शरीर की कांति और प्रभा सूर्य के समान ही अलौकिक हैं।माता के तेज और प्रकाश से दसों दिशाएं प्रकाशित होती हैं ब्रह्मांड की सभी वस्तुओं और प्राणियों में मौजूद तेज मां कुष्मांडा की छाया है। मां कुष्‍माण्‍डा की आठ भुजाएं हैं। इसलिए मां कुष्मांडा को अष्टभुजा देवी के नाम से भी जाना जाता हैं। इनके सात हाथों में क्रमशः कमंडल, धनुष, बाण, कमल-पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा है। आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जपमाला है। मां सिंह के वाहन पर सवार रहती हैं।

मंत्र: सुरासम्पूर्णकलशं रुधिराप्लुतमेव च।
      दधाना हस्तपद्माभ्यां कुष्मांडा शुभदास्तु मे॥


5. पांचवां दिन यानि मां स्कंदमाता :नवरात्र का पांचवां दिनस्कंदमाता की उपासना का दिन होता है। मोक्ष के द्वार खोलने वाली माता परम सुखदायी हैं। माँ अपने भक्तों की समस्त इच्छाओं की पूर्ति करती हैं। भगवान स्कंद 'कुमार कार्तिकेय' नाम से भी जाने जाते हैं। ये प्रसिद्ध देवासुर संग्राम में देवताओं के सेनापति बने थे। पुराणों में इन्हें कुमार और शक्ति कहकर इनकी महिमा का वर्णन किया गया है। इन्हीं भगवान स्कंद की माता होने के कारण माँ दुर्गाजी के इस स्वरूप को स्कंदमाता के नाम से जाना जाता है।स्कंदमाता की चार भुजाएं हैं। इनके दाहिनी तरफ की नीचे वाली भुजा, जो ऊपर की ओर उठी हुई है, उसमें कमल पुष्प है। बाईं तरफ की ऊपर वाली भुजा में वरमुद्रा में तथा नीचे वाली भुजा जो ऊपर की ओर उठी है उसमें भी कमल पुष्प ली हुई हैं। इनका वर्ण पूर्णत: शुभ्र है। ये कमल के आसन पर विराजमान रहती हैं। इसी कारण इन्हें पद्मासना देवी भी कहा जाता है। सिंह इनका भी वाहन है।
स्कन्दमाता की पूजा विधि : कुण्डलिनी जागरण के उद्देश्य से जो साधक दुर्गा मां की उपासना कर रहे हैं उनके लिए दुर्गा पूजा का यह दिन विशुद्ध चक्र की साधना का होता है। इस चक्र का भेदन करने के लिए साधक को पहले मां की विधि सहित पूजा करनी चाहिए। पूजा के लिए कुश अथवा कम्बल के पवित्र आसन पर बैठकर पूजा प्रक्रिया को उसी प्रकार से शुरू करना चाहिए जैसे आपने अब तक के चार दिनों में किया है फिर इस मंत्र से देवी की प्रार्थना करनी चाहिए।
मंत्र: सिंहसनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया।
      शुभदास्तु सदा देवी स्कंदमाता यशस्विनी॥
अब पंचोपचार विधि से देवी स्कन्दमाता की पूजा कीजिए। नवरात्रे की पंचमी तिथि को कहीं कहीं भक्त जन उद्यंग ललिता का व्रत भी रखते हैं। इस व्रत को फलदायक कहा गया है। जो भक्त देवी स्कन्द माता की भक्ति-भाव सहित पूजन करते हैं उसे देवी की कृपा प्राप्त होती है। देवी की कृपा से भक्त की मुराद पूरी होती है और घर में सुख, शांति एवं समृद्धि रहती है।
स्कन्दमाता की मंत्र:
सिंहासना गता नित्यं पद्माश्रि तकरद्वया ।
शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी ।।
या देवी सर्वभू?तेषु माँ स्कंदमाता रूपेण संस्थिता। 
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।

6.छठवां दिन यानि मां कात्यायनी:मां दुर्गा के छठे स्वरूप का नाम कात्यायनी है। उस दिन साधक का मन 'आज्ञा' चक्र में स्थित होता है। योगसाधना में इस आज्ञा चक्र का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। इस चक्र में स्थित मन वाला साधक माँ कात्यायनी के चरणों में अपना सर्वस्व निवेदित कर देता है। परिपूर्ण आत्मदान करने वाले ऐसे भक्तों को सहज भाव से मां के दर्शन प्राप्त हो जाते हैं।
मां कात्यायनी का स्वरूप : मां कात्यायनी का स्वरूप अत्यन्त दिव्य और स्वर्ण के समान चमकीला है। यह अपनी प्रिय सवारी सिंह पर विराजमान रहती हैं। इनकी चार भुजायें भक्तों को वरदान देती हैं, इनका एक हाथ अभय मुद्रा में है, तो दूसरा हाथ वरदमुद्रा में है अन्य हाथों में तलवार और कमल का फूल है।देवी कात्यायनी अमोद्य फलदायिनी हैं इनकी पूजा अर्चना द्वारा सभी संकटों का नाश होता है, मां कात्यायनी दानवों तथा पापियों का नाश करने वाली हैं। मान्यता के अनुसार देवी कात्यायनी जी के पूजन से भक्त के भीतर अद्भुत शक्ति का संचार होता है। भक्त को माता के पूजन द्वारा सहजभाव से मां कात्यायनी के दर्शन प्राप्त होते हैं। साधक इस लोक में रहते हुए अलौकिक तेज से युक्त रहता है।
मां कात्यायनी की पूजा विधि : नवरात्रों के छठे दिन मां कात्यायनी की सभी प्रकार से विधिवत पूजा अर्चना करनी चाहिए फिर मां का आशीर्वाद लेना चाहिए और साधना में बैठना चाहिए। इस प्रकार जो साधक प्रयास करते हैं उन्हें भगवती कात्यायनी सभी प्रकार के भय से मुक्त करती हैं. मां कात्यायनी की भक्ति से धर्म, अर्थ, कर्म, काम, मोक्ष की प्राप्ति होती है। पूजा की विधि शुरू करने पर हाथों में फूल लेकर देवी को प्रणाम कर देवी के मंत्र का ध्यान किया जाता है. देवी की पूजा के पश्चात महादेव और परम पिता की पूजा करनी चाहिए. श्री हरि की पूजा देवी लक्ष्मी के साथ ही करनी चाहिए।
मंत्र:चंद्रहासोज्ज्वलकरा शार्दूलवरवाहना।
     कात्यायनी शुभं दद्याद्देवी दानवघातिनी॥
चढावा- षष्ठी तिथि के दिन देवी के पूजन में मधु का महत्व बताया गया है। इस दिन प्रसाद में मधु यानि शहद का प्रयोग करना चाहिए।
मनोकामना- मां कात्यायनी अमोघ फलदायिनी मानी गई हैं। शिक्षा प्राप्ति के क्षेत्र में प्रयासरत भक्तों को माता की अवश्य उपासना करनी चाहिए।
मनोवान्छित वर की प्राप्ति :माना जाता है कि जिन कन्याओं के विवाह मे विलम्ब हो रहा हो, उन्हे इस दिन माँ कात्यायनी की उपासना अवश्य करनी चाहिए, जिससे उन्हें मनोवान्छित वर की प्राप्ति होती है।
विवाह के लिए कात्यायनी मन्त्र- 
ऊॅं कात्यायनी महामाये महायोगिन्यधीश्वरि ! नंदगोपसुतम् देवि पतिम् मे कुरुते नम:।'

7. सातवां दिन यानि मां कालरात्रि:नवरात्रि के सातवें दिन होती है मां कालरात्रि की पूजा। मां कालरात्रि को यंत्र, मंत्र और तंत्र की देवी कहा जाता है। कहा जाता है कि देवी दुर्गा ने रक्तबीज का वध करने के लिए कालरात्रि को अपने तेज से उत्पन्न किया था। इनकी उपासना से प्राणी सर्वथा भय मुक्त हो जाता है।ऐसा है मां का स्वरूप: इनके शरीर का रंग काला है। मां कालरात्रि के गले में नरमुंड की माला है। कालरात्रि के तीन नेत्र हैं और उनके केश खुले हुए हैं। मां गर्दभ  की सवारी करती हैं। मां के चार हाथ हैं एक हाथ में कटार और एक हाथ में लोहे का कांटा है।
मंत्र: 
    ॐ जयंती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी।
     दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोस्तु ते।।
     जय त्वं देवि चामुण्डे जय भूतार्तिहारिणि।                    
     जय सर्वगते देवि कालरात्रि नमोस्तु ते।।

- धां धीं धूं धूर्जटे: पत्नी वां वीं वूं वागधीश्वरी
क्रां क्रीं क्रूं कालिका देवि शां शीं शूं मे शुभं कुरु।
बीज मंत्र :  ऊं ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे। ( तीन, सात या ग्यारह माला करें)
कालरात्रि पूजा विधि  :  सप्तमी की पूजा अन्य दिनों की तरह ही होती परंतु रात्रि में विशेष विधान के साथ देवी की पूजा की जाती है। इस दिन कहीं कहीं तांत्रिक विधि से पूजा होने पर मदिरा भी देवी को अर्पित कि जाती है। सप्तमी की रात्रि ‘सिद्धियों’ की रात भी कही जाती है। पूजा विधान में शास्त्रों में जैसा वर्णित हैं उसके अनुसार पहले कलश की पूजा करनी चाहिए।
नवग्रह, दशदिक्पाल, देवी के परिवार में उपस्थित देवी देवता की पूजा करनी चाहिए फिर मां कालरात्रि की पूजा करनी चाहिए। दुर्गा पूजा में सप्तमी तिथि का काफी महत्व बताया गया है। इस दिन से भक्त जनों के लिए देवी मां का दरवाज़ा खुल जाता है और भक्तगण पूजा स्थलों पर देवी के दर्शन हेतु पूजा स्थल पर जुटने लगते हैं।
मनोकामना: मां की इस तरह की पूजा से मृत्यु का भय नहीं सताता। देवी का यह रूप ऋद्धि- सिद्धि प्रदान करने वाला है। देवी भगवती के प्रताप से सब मंगल ही मंगल होता है।

8.आठवां दिन यानि मां महागौरी: नवरात्र के आठवें दिन आठवीं दुर्गा यानि की महागौरी की पूजा अर्चना और आराधना की जाती है। कहते हैं अपनी कठीन तपस्या से मां ने गौर वर्ण प्राप्त किया था। तभी से इन्हें उज्जवला स्वरूपा महागौरी, धन ऐश्वर्य प्रदायिनी, चैतन्यमयी त्रैलोक्य पूज्य मंगला, शारीरिक मानसिक और सांसारिक ताप का हरण करने वाली माता महागौरी का नाम दिया गया। 
श्वेते वृषे समरूढा श्वेताम्बराधरा शुचिः। 
महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा ।।
मां महागौरी की पूजा करने से मन पवित्र हो जाता है और भक्तों की सारी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। इस दिन षोडशोपचार पूजन किया जाता है। मां की कृपा से अलौकिक सिद्धियों की प्राप्ति होती है। देवी महागौरी का अत्यंत गौर वर्ण हैं। इनके वस्त्र और आभूषण सफेद हैं। इनकी चार भुजाएं हैं। महागौरी का वाहन बैल है। देवी के दाहिने ओर के ऊपर वाले हाथ में अभय मुद्रा और नीचे वाले हाथ में त्रिशूल है। बाएं ओर के ऊपर वाले हाथ में डमरू और नीचे वाले हाथ में वर मुद्रा है।
पूजन विधि इस प्रकार है : सबसे पहले गंगा जल से शुद्धिकरण करके देवी मां महागौरी की प्रतिमा या तस्वीर चौकी पर स्थापित करें। इसके बाद चौकी पर चांदी, तांबे या मिट्टी के घड़े में जल भरकर उस पर नारियल रखकर कलश स्थापना करें। उसी चौकी पर श्रीगणेश, वरुण, नवग्रह, षोडश मातृका (16 देवी), सप्त घृत मातृका(सात सिंदूर की बिंदी लगाएं) की स्थापना भी करें।इसके बाद व्रत, पूजन का संकल्प लें और वैदिक एवं सप्तशती मंत्रों द्वारा माता महागौरी सहित समस्त स्थापित देवताओं की षोडशोपचार पूजा करें। इसमें आवाहन, आसन, पाद्य, अध्र्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, सौभाग्य सूत्र, चंदन, रोली, हल्दी, सिंदूर, दुर्वा, बिल्वपत्र, आभूषण, पुष्प-हार, सुगंधित द्रव्य, धूप-दीप, नैवेद्य, फल, पान, दक्षिणा, आरती, प्रदक्षिणा, मंत्र पुष्पांजलि आदि करें। इस दिन माता दुर्गा को नारियल का भोग लगाएं और नारियल का दान भी करें।

मां महागौरी का उपासना मंत्र: 
श्वेते वृषे समारुढ़ा, श्वेताम्बरधरा शुचिः।
महागौरीं शुभं दद्यान्महादेवप्रमोदया।।


9.नौवां दिन यानि मां सिद्धिदात्री :-नवरात्रि के नौवें और आखिरी दिन माता सिद्धिदात्री की पूजा की जाती है। मां दुर्गा की नौवीं शक्ति देवी सिद्धिदात्री की पूजा करने से भक्तों को सारी सिद्धियां प्राप्त होती हैं। देवी सिद्धिदात्री को मां सरस्वती का भी एक रूप माना जाता है क्योंकि माता अपने सफेद वस्त्र एवं अलंकार से सुसज्जित अपने भक्तों को महाज्ञान एवं मधुर स्वर से मन्त्र-मुग्ध करती है। सिद्धिदात्री मां की पूजा के बाद ही अगले दिन दशहरा त्योहार मनाया जाता है।

देवी सिद्धिदात्री का रूप अत्यंत सौम्य है, देवी की चार भुजाएं हैं। दाईं भुजा में माता ने चक्र और गदा धारण किया है और बांई भुजा में शंख और कमल का फूल है। मां सिद्धिदात्री कमल आसन पर विराजमान रहती हैं, मां की सवारी सिंह हैं। मां की आराधना वाले इस दिन को रामनवमी भी कहा जाता है और शारदीय नवरात्रि के अगले दिन अर्थात दसवें दिन को रावण पर राम की विजय के रूप में मनाया जाता है।

ऐसे करें पूजा:  इस दिन माता सिद्धिदात्री को नवाह्न प्रसाद, नवरस युक्त भोजन, नौ प्रकार के पुष्प और नौ प्रकार के ही फल अर्पित करने चाहिए। सर्वप्रथम कलश की पूजा व उसमें स्थपित सभी देवी-देवताओ का ध्यान करना चाहिए। इसके पश्चात माता के मंत्रो का जाप कर उनकी पूजा करनी चाहिए। इस दिन नौ कन्याओं को घर में भोग लगाना चाहिए। नव-दुर्गाओं में सिद्धिदात्री अंतिम है तथा इनकी पूजा से भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती है। कन्याओं की आयु दो वर्ष से ऊपर और 10 वर्ष तक होनी चाहिए और इनकी संख्या कम से कम 9 तो होनी ही चाहिए। यदि 9 से ज्यादा कन्या भोज पर आ रही है तो कोई आपत्ति नहीं है।इस तरह से की गई पूजा से माता अपने भक्तों पर तुरंत प्रसन्न होती है। भक्तों को संसार में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस दिन भक्तों को अपना सारा ध्यान निर्वाण चक्र की ओर लगाना चाहिए। यह चक्र हमारे कपाल के मध्य में स्थित होता है। ऐसा करने से भक्तों को माता सिद्धिदात्री की कृपा से उनके निर्वाण चक्र में उपस्थित शक्ति स्वतः ही प्राप्त हो जाती है।


मंत्र: सिद्ध गन्धर्व यक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि।
     सेव्यमाना सदा भूयाात् सिद्धिदा सिद्धिदायिनी।।

देवी का बीज मंत्र :

ऊॅं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे नमो नमः ।।


मां सिद्धदात्री की पूजा में हवन करने के लिए दुर्गा सप्तशती के सभी श्लोकों का प्रयोग किया जा सकता है।


🙏जय श्री राम 🙏


Twitter:-

https://twitter.com/astroforall10?s=21&t=yK2hljabFq2ZPDQX_cfO5g


YouTube:-http://shorturl.at/imVW0


Telegram Link:- https://t.me/AstroForAll10


Blog Link:- http://astroforall10.blogspot.com/


Fill the form for questions related to you and your friends:-  http://shorturl.at/epqrx


Disclaimer:- The information provided on this content is for education and information purpose to it’s viewer’s based on the astrology or personal experience. You are someone else doesn’t necessarily agree with them part or whole. Therefore you are advised to take any decision in your own discretion . The channel or channel owner will not directly or indirectly responsible in any way.



Thursday, 8 September 2022

अनंत चतुर्दशी

#AnantChaturdashi #anantchaturdashi2022

अनंत चतुर्दशी :-

पौराणिक मान्यता के अनुसार महाभारत काल से अनंत चतुर्दशी व्रत की शुरुआत हुई। यह भगवान विष्णु का दिन माना जाता है। अनंत भगवान ने सृष्टि के आरंभ में चौदह लोकों तल, अतल, वितल, सुतल, तलातल, रसातल, पाताल, भू, भुवः, स्वः, जन, तप, सत्य, मह की रचना की थी। इन लोकों का पालन और रक्षा करने के लिए वह स्वयं भी चौदह रूपों में प्रकट हुए थे, जिससे वे अनंत प्रतीत होने लगे। इसलिए अनंत चतुर्दशी का व्रत भगवान विष्णु को प्रसन्न करने और अनंत फल देने वाला माना गया है। मान्यता है कि इस दिन व्रत रखने के साथ-साथ यदि कोई व्यक्ति श्री विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र का पाठ करता है, तो उसकी समस्त मनोकामना पूर्ण होती है। धन-धान्य, सुख-संपदा और संतान आदि की कामना से यह व्रत किया जाता है। भारत के कई राज्यों में इस व्रत का प्रचलन है। इस दिन भगवान विष्णु की लोक कथाएं सुनी जाती है।

इस दिन भगवान विष्णु की कथा, पूजा के लिए चतुर्दशी तिथि सूर्य उदय के पश्चात दो मुहूर्त में व्याप्त होनी चाहिए। पूर्णिमा का सहयोग होने से इसका बल बढ़ जाता है। यदि चतुर्दशी तिथि सूर्य उदय के बाद दो मुहूर्त से पहले ही समाप्त हो जाए, तो अनंत चतुर्दशी पिछले दिन मनाये जाने का विधान है। इस व्रत की पूजा और मुख्य कर्मकाल दिन के प्रथम भाग में करना शुभ माने जाते हैं। यदि प्रथम भाग में पूजा करने से चूक जाते हैं, तो मध्याह्न के शुरुआती चरण में करना चाहिए। मध्याह्न का शुरुआती चरण दिन के सप्तम से नवम मुहूर्त तक होता है।

जैसा इस व्रत के नाम से प्रतीत होता है कि यह दिन उस अंत न होने वाले सृष्टि के पालनकर्ता विष्णु की भक्ति का दिन है। 
यूं तो यह व्रत नदी-तट पर किया जाना चाहिए और हरि की लोककथाएं सुननी चाहिए। लेकिन संभव ना होने पर घर में ही स्थापित मंदिर के सामने हरि से इस प्रकार की प्रार्थना की जाती है- 'हे वासुदेव, इस अनंत संसार रूपी महासमुद्र में डूबे हुए लोगों की रक्षा करो तथा उन्हें अनंत के रूप का ध्यान करने में संलग्न करो, अनंत रूप वाले प्रभु तुम्हें नमस्कार है।'

पूजा कैसे करे :-

प्रात:काल स्नानादि नित्यकर्मों से निवृत्त होकर कलश की स्थापना करें। कलश पर अष्टदल कमल के समान बने बर्तन में कुश से निर्मित अनंत की स्थापना की जाती है। इसके आगे कुंकूम, केसर या हल्दी से रंग कर बनाया हुआ कच्चे डोरे का चौदह गांठों वाला 'अनंत' भी रखा जाता है। कुश के अनंत की वंदना करके, उसमें भगवान विष्णु का आह्वान तथा ध्यान करके गंध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि से पूजन करें। 

इस व्रत में सूत या रेशम के धागे को लाल कुमकुम से रंग, उसमें चौदह गांठे (14 गांठे भगवान श्री हरि के द्वारा 14 लोकों की प्रतीक मानी गई है) लगाकर राखी की तरह का अनंत बनाया जाता है। इस अनंत रूपी धागे को पूजा में भगवान पर चढ़ा कर व्रती अपने बाजु में बाँधते हैं। पुरुष दाएं तथा स्त्रियां बाएं हाथ में अनंत बाँधती है। यह अनंत हम पर आने वाले सब संकटों से रक्षा करता है। यह अनंत धागा भगवान विष्णु को प्रसन्न करने वाला तथा अनंत फल देता है। यह व्रत धन पुत्रादि की कामना से किया जाता है। इस दिन नये धागे के अनंत को धारण कर पुराने धागे के अनंत का विसर्जन किया जाता है ।

क्या है मुहूर्त :-

चतुर्दशी तिथि प्रारंभ:-
08 सितम्बर को रात्रि 09 बजकर 01 मिनट से ।

चतुर्दशी तिथि समाप्‍त:-
09 सितम्बर को सायं 06 बजकर 00 मिनट तक।

अनंत चर्तुदशी पूजा का मुहूर्त:-
09 सितंबर को सुबह 05 बजकर 57 मिनट से सायं 06 बजकर 05 मिनट तक रहेगा।

चूंकि 09 तारीख को पूरे दिन की चतुर्दशी तिथि है, ऐसे में राहुकाल को छोड़कर किसी भी समय पूजन किया जा सकता है। 09 सितंबर को राहुकाल दिन 10:40 से 12:14 तक रहेगा।

पूजा की सामग्री क्या क्या सामान सहेजे :-

• शेषनाग पर लेटे हुए श्री हरि की मूर्ति अथवा तस्वीर 
• आसन (कम्बल)
• धूप - एक पैकेट
• पुष्पों की माला – चार
• फल – सामर्थ्यानुसार
• पुष्प (14 प्रकार के)
• अंग वस्त्र –एक
• नैवैद्य(मालपुआ )
• मिष्ठा्न - सामर्थ्यानुसार
• अनंत सूत्र (14 गाँठों वाले ) – नये
• अनंत सूत्र (14 गाँठों वाले ) – पुराने
• यज्ञोपवीत (जनेऊ) – एक जोड़ा
• वस्त्र
• पत्ते – 14 प्रकार के वृक्षों का
• कलश (मिट्टी का)- एक
• कलश पात्र (मिट्टी का)- एक 
• दूर्बा 
• चावल – 250 ग्राम
• कपूर- एक पैकेट
• तुलसी दल
• पान- पाँच
• सुपारी- पाँच
• लौंग – एक पैकेट
• इलायची - एक पैकेट
• पंचामृत (दूध,दही,घी,शहद,शक्कर)

अनंत चतुर्दशी व्रत पूजन विधि :-

पुराणों मे इस व्रत को करने का विधान नदी या सरोवर पर उत्तम माना गया है। परंतु आज के आधुनिक युग में यह सम्भव नहीं है। अत: घर में ही पूजा स्थान पर शुद्धिकरण करके अनंत भगवान की पूजा करें तथा कथा सुने। साधक प्रात: काल स्नानादि कर नित्यकर्मों से निवृत हो जायें। सभी सामग्री को एकत्रित कर लें तथा पूजा स्थान को पवित्र कर लें। पत्नी सहित आसन पर बैठ जायें। पूजागृह की स्वच्छ भूमि पर कलश स्थापित करें। कलश पर शेषनाग की शैय्यापर लेटे भगवान विष्णु की मूíत अथवा चित्र को रखें। उनके समक्ष चौदह ग्रंथियों (गांठों) से युक्त अनन्तसूत्र (डोरा) रखें। इसके बाद ॐ अनन्तायनम: मंत्र से भगवान विष्णु तथा अनंतसूत्रकी षोडशोपचार-विधिसे पूजा करें। पूजनोपरांतअनन्तसूत्रको मंत्र पढकर पुरुष अपने दाहिने हाथ और स्त्री बाएं हाथ में बांध लें।

अनंन्तसागरमहासमुद्रेमग्नान्समभ्युद्धरवासुदेव।
अनंतरूपेविनियोजितात्माह्यनन्तरूपायनमोनमस्ते॥

अनंतसूत्रबांध लेने के पश्चात किसी ब्राह्मण को नैवेद्य (भोग) में निवेदित पकवान देकर स्वयं सपरिवार प्रसाद ग्रहण करें। पूजा के बाद व्रत-कथा को पढें या सुनें। कथा का सार-संक्षेप यह है- सत्ययुग में सुमन्तुनाम के एक मुनि थे। उनकी पुत्री शीला अपने नाम के अनुरूप अत्यंत सुशील थी। सुमन्तु मुनि ने उस कन्या का विवाह कौण्डिन्यमुनि से किया। कौण्डिन्यमुनि अपनी पत्नी शीला को लेकर जब ससुराल से घर वापस लौट रहे थे, तब रास्ते में नदी के किनारे कुछ स्त्रियां अनन्त भगवान की पूजा करते दिखाई पडीं। शीला ने अनन्त-व्रत का माहात्म्य जानकर उन स्त्रियों के साथ अनंत भगवान का पूजन करके अनन्तसूत्रबांध लिया। इसके फलस्वरूप थोडे ही दिनों में उसका घर धन-धान्य से पूर्ण हो गया।

पवित्रीकरण और मंत्र :-

अब दाहिने हाथ में जल लेकर निम्न पवित्रीकरण मंत्र का उच्चारण करें और सभी सामग्री , उपस्थित जन- समूह पर उस जल का छिंटा दें कर सभी को पवित्र कर लें ।

ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्व अवस्थांगत: अपिवा।
यः स्मरेत्‌ पुण्डरीकाक्षं स वाह्य अभ्यन्तर: शुचिः॥

आचमन 
दाएँ हाथ में जल लें निम्न आचमन मंत्र के द्वारा तीन बार आचमन करें 
“ॐ केशवाय नमः” मंत्र का उच्चारण करते हुए जल को पी लें।
“ॐ नारायणाय नमः” मंत्र का उच्चारण करते हुए जल को पी लें।
“ॐ वासुदेवाय नमः” मंत्र का उच्चारण करते हुए जल को पी लें।
तत्पश्चात“ॐ हृषिकेशाय नमः” कहते हुए दाएँ हाथ के अंगूठे के मूल से होंठों को दो बार पोंछकर हाथों को धो लें।

पवित्री धारण :-

तत्पश्चात् निम्न मंत्र के द्वारा कुश निर्मित पवित्री धारण करे -
पवित्रे स्थो वैष्णव्यौ सवितुर्वः प्रसव उत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभिः । 
तस्य ते पवित्रपते पवित्रपूतस्य यत्कामः पुने तच्छकेयम् ।
स्वस्तिवाचन – 
हाथ में अक्षत तथा पुष्प लें और निम्न मंत्रों को बोलते हुए थोड़ा –थोड़ा पुष्प भूमि पर छोड़ते जायें ।

ॐ गणेशाम्बिकाभ्यां नम : । ॐ केशवाय नम : । ॐ नारायणणाय नम : । ॐ माधवाय नम : । ॐ गोविंदाय नम : । ॐ विष्णवे नम : । ॐ मधुसूदनाय नम : । ॐ त्रिविक्रमाय नम : । ॐ वामनाय नम : । ॐ श्रीराधाय नम : । ॐ ह्रषीकेशाय नम : । ॐ पद्मनाभाय नम : । ॐ दामोदराय नम : । ॐ संकर्षणाय नम : । ॐ वासुदेवाय नम : । ॐ प्रद्युम्नाय नम : । ॐ अनिरुद्धाय नम : । ॐ पुरुषोत्तमाय नम : । ॐ अधोक्षजाय नम : । ॐ नरसिंहाय नम : । ॐ अच्युताय नम : । ॐ जनार्दनाय नम : । ॐ उपेंद्राय नम : । ॐ हरये नम : । ॐ श्रीकृष्णाय नम : । ॐ श्रीलक्ष्मीनारायणाभ्यां नम : । ॐ उमामहेश्वराभ्यां नम : । शचीपुरन्दराभ्यां नम : । मातृपितृभ्यां नम : । इष्टदेवताभ्यो नम : । ग्रामदेवताभ्यो नम : । स्थानदेवताभ्यो नम : । वास्तुदेवताभ्यो नम : । सर्वेभ्यो देवेभ्यो नम : । सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो नम : ।

संकल्प कैसे ले : - 

हाथ मे अक्ष्त ,पान का पत्ता ,सुपारी तथा सामर्थ्यानुसार सिक्के लेकर संकल्प मंत्र उच्चारित करते हुए संकल्प करें – 
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्यॐ विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्य श्रीब्रह्मणोऽह्नि द्वितीय परार्द्धे विष्नुपदे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे, अष्टाविंशतितमे युगे कलियुगे, कलिप्रथमचरणे भूर्लोके जम्बुद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तैकदेशे अमुकक्षेत्रे (अपने नगर तथा क्षेत्र का नाम लें) बौद्धावतारे अमुकनाम संवत्सरे श्रीसुर्ये अमुकयाने अमुक ऋतो ( ऋतु का नाम लें ) महामंगल्यप्रदे मासानां मासोत्तमे भाद्र मासे शुक्ल पक्षे चतुर्दशी तिथौ अमुक वासरे ( वार का नाम लें ) अमुक नक्षत्रे ( नक्षत्र का नाम लें ) अमुक योगे अमुक-करणे अमुकराशिस्थिते चंद्रे ( जिस राशि में चंद्रमा स्थित हो,उसका नाम लें ) अमुकराशिस्थिते श्रीसुर्ये (जिस राशि में सुर्य स्थित हो,उसका नाम लें ) देवगुरौ शेषेषु ग्रहेषु यथायथा- राशिस्थान-स्थितेषु सत्सु एवं ग्रह-गुणग़ण-विशेषण- विशिष्टायां शुभपुण्यतिथौ अमुक गोत्र (अपने गोत्र का नाम लें ) अमुकनाम ( अपना नाम ले ) ऽहं मम सकुटुम्बस्य क्षेमैश्वर्यायुरारोग्यचतुर्विधपुरुषार्थसिद्ध्यर्थं मया आचरितं वा आचार्यमाणस्य व्रतस्य सम्पूर्णफलावाप्त्यर्थं श्रीमदनन्तपूजनमहंकरिष्ये। श्रीमदनन्तव्रतांगत्वेन गणेशपूजनं ,यमुनापूजनादिकं च करिष्ये।
फिर कथा कहें ।।

क्या है व्रत कथा :-

एक दिन कौण्डिन्य मुनि की दृष्टि अपनी पत्नी के बाएं हाथ में बंधे अनन्तसूत्रपर पडी, जिसे देखकर वह भ्रमित हो गए और उन्होंने पूछा-क्या तुमने मुझे वश में करने के लिए यह सूत्र बांधा है? शीला ने विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया-जी नहीं, यह अनंत भगवान का पवित्र सूत्र है। परंतु ऐश्वर्य के मद में अंधे हो चुके कौण्डिन्यने अपनी पत्नी की सही बात को भी गलत समझा और अनन्तसूत्रको जादू-मंतर वाला वशीकरण करने का डोरा समझकर तोड दिया तथा उसे आग में डालकर जला दिया। इस जघन्य कर्म का परिणाम भी शीघ्र ही सामने आ गया। उनकी सारी संपत्ति नष्ट हो गई। दीन-हीन स्थिति में जीवन-यापन करने में विवश हो जाने पर कौण्डिन्यऋषि ने अपने अपराध का प्रायश्चित करने का निर्णय लिया। वे अनन्त भगवान से क्षमा मांगने हेतु वन में चले गए। उन्हें रास्ते में जो मिलता वे उससे अनन्तदेवका पता पूछते जाते थे। बहुत खोजने पर भी कौण्डिन्यमुनि को जब अनन्त भगवान का साक्षात्कार नहीं हुआ, तब वे निराश होकर प्राण त्यागने को उद्यत हुए। तभी एक वृद्ध ब्राह्मण ने आकर उन्हें आत्महत्या करने से रोक दिया और एक गुफामें ले जाकर चतुर्भुजअनन्तदेवका दर्शन कराया।

भगवान ने मुनि से कहा-तुमने जो अनन्तसूत्रका तिरस्कार किया है, यह सब उसी का फल है। इसके प्रायश्चित हेतु तुम चौदह वर्ष तक निरंतर अनन्त-व्रत का पालन करो। इस व्रत का अनुष्ठान पूरा हो जाने पर तुम्हारी नष्ट हुई सम्पत्ति तुम्हें पुन:प्राप्त हो जाएगी और तुम पूर्ववत् सुखी-समृद्ध हो जाओगे। कौण्डिन्यमुनिने इस आज्ञा को सहर्ष स्वीकार कर लिया। भगवान ने आगे कहा-जीव अपने पूर्ववत् दुष्कर्मोका फल ही दुर्गति के रूप में भोगता है। मनुष्य जन्म-जन्मांतर के पातकों के कारण अनेक कष्ट पाता है। अनन्त-व्रत के सविधि पालन से पाप नष्ट होते हैं तथा सुख-शांति प्राप्त होती है। कौण्डिन्यमुनि ने चौदह वर्ष तक अनन्त-व्रत का नियमपूर्वक पालन करके खोई हुई समृद्धि को पुन:प्राप्त कर लिया।

#पंचांग #धर्म #पूजाविधि #वृतकथा #चतुर्दशी #lifesutras

बसंत पंचमी

#वसंत पंचमी 25 जनवरी 2023 बुधवार को दोपहर 12:35 से 26 जनवरी, गुरुवार को सुबह 10:28 तक माघ माह की पंचमी तिथी है। यदि आप और आपके जीवनसाथी के ब...