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Monday, 25 April 2022
वरुथिनी एकादशी
Saturday, 16 April 2022
राहु के योग व अन्य ग्रहों से युति | राहु महादशा के फल एवं उपाय
राहु-केतु छाया ग्रह हैं, परंतु उनके मानव जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव के आधार पर हमारे तत्ववेत्ता ऋषि-मुनियों ने उन्हें नैसर्गिक पापी ग्रह की संज्ञा दी है। जहां शनि का प्रभाव धीरे-धीरे होता है, राहु का प्रभाव अचानक और तीव्र गति से होता है। राहु-केतु कुंडली में आमने-सामने 180 degree की दूरी पर रहते हैं और सदा वक्र गति से गोचर करते हैं। राहु ‘इहलोक’ (सुख-समृद्धि) तथा केतु ‘परलोक’ (आध्यात्म), से संबंध रखता है।
यह कुंडली के तीसरे, छठे और ग्यारहवें भाव में अच्छा फल देते हैं। सूर्य और चंद्रमा से राहु की परम शत्रुता है। शुभ ग्रहों से युति व दृष्टि संबंध होने पर राहु सभी प्रकार के सांसारिक -शारीरिक, मानसिक और भौतिक -सुख देता है, परंतु अशुभ व पापी ग्रह से संबंध कष्टकारी होता है। फल की प्राप्ति संबंधित ग्रह के बलानुपात में होती है। राहु से संबंधित अशुभ ग्रह की दशा जितने कष्ट देती है, उससे अधिक कष्टकारी राहु की दशा-भुक्ति होती है।
राहु द्वारा ग्रसित होने पर सूर्य अपने कारकत्व – पिता, धन, आदर, सम्मान, नौकरी, दाहिनी आंख, हृदय आदि- संबंधी कष्ट देता है। बहुत मेहनत करने पर भी लाभ नहीं मिलता। साथ ही सूर्य जिस भाव का स्वामी होता है उसके फल की हानि होती है। व्यक्ति के व्यवहार में दिखावा, घमंड व बड़बोलापन अंततः हानिकारक सिद्ध होता है।
राहु द्वारा ग्रस्त होने पर चंद्रमा जातक की माता को कष्ट देता है। पारिवारिक शांति भंग होती है। जातक स्वयं छाती, पेट, बाईं आंख के रोग, या मानसिक संताप से ग्रसित होता है। उसे डर, असमंजस और चिंता के कारण नींद नहीं आती और वह बुरी आदतों में लिप्त हो जाता है। चंद्रमा के निर्बल और पीड़ित होने पर जातक हताशा में आत्महत्या तक कर लेता है। राहु द्वारा ग्रसित होने पर मंगल जातक को उग्र व क्रोधी बनाता है। वह चिड़चिड़ा और आक्रामक बन जाता है|
राहु के योग व अन्य ग्रहों से युति:-
राहु जिसका संबंध अन्य ग्रहों के साथ ज्यादातर अशुभ योग ही बनाता है जैसे सूर्य चन्द्र के साथ सूर्य चन्द्र ग्रहण योग , मंगल के साथ अंगारक योग, बुध के साथ सम, गुरु के साथ गुरुचण्डाल योग, शुक्र के साथ कामी योग, और शनि के साथ प्रेतश्राप योग बनाता है तो इस तरह से तो राहु का संबंध किसी भी ग्रह के साथ हो तो यह अशुभ ही दिख रहा है लेकिन ऐसा हर स्थिति में नही होता।राहु किसी भी ग्रह के साथ क्यों न हो?
राहु उस ग्रह की स्थिति के अनुसार और उस ग्रह से प्रभावित होकर ही अपनी समझ से फल देता है।यह फल बहुत शुभ भी हो सकते है और अशुभ भी हो सकते है।अब राहु के इसी विषय पर बात करते है।। राहु जब किसी भी ग्रह के साथ बैठता है तब अगर राहु उस ग्रह के घर को भी पीड़ित करे और उस ग्रह को भी पीड़ित करे तब यह अशुभ फल ही देगा लेकिन जब यह किसी भी ग्रह के साथ बैठा हो और उस ग्रह की हर तरह से स्थिति शुभ फल कारक है जिसके साथ राहु बैठा है साथ ही उस ग्रह के जो कुंडली मे घर है उनको यह पीड़ित न करे तब यह शुभ फल ही देगा उस ग्रह के साथ
#जैसे;- वृश्चिक लग्न में सूर्य दशमेश होता है अब माना सूर्य राहु के साथ 11वे भाव मे बैठ जाये तब यह शुभ फल ही देगा सूर्य ग्रहण योग बनाने पर भी अगर किसी भी जातक की कुंडली मे इस तरह की स्थिति है तब चाहे वह राहु किसी भी ग्रह के साथ बनाये।ऐसे में यह सूर्य जो कि वृश्चिक लग्न में दशम बबाव का स्वामी है और 11वे भाव मे राहु के साथ होगा तो राहु और 11वे भाव के फल बढ़िया दिलवाएगा क्योंकि राहु एक तो दशमेश सूर्य के साथ है और राहु सूर्य के घर दसवे भाव को पीड़ित नही कर रहा है और दूसरा राहु का प्रिय घर होता है कुंडली मे दसवा तो सूर्य के साथ यहाँ और अच्छा हो जाएगा।तो इस तरह से राहु किसी भी ग्रह के साथ हो शुभ फल ही देगा।
#उदाहरण1:-सूर्य अब दशमेश होकर वृश्चिक लग्न में दसवे भाव मे ही हो और राहु भी सूर्य के साथ दसवे भाव मे बैठा हो तब अब राहु यहाँ काफी दिक्कतें देगा क्योंकि राहु ने अब सूर्य और सूर्य के घर दसवे भाव दोनो को अपनी पकड़ में ले लिया है अब यह सूर्य ग्रहण योग का भी नकारात्मक फल देगा जिस कारण कार्य छेत्र में बहुत उताब चढाब रहेगा।तो राहु जब कुंडली मे किसी भी ग्रह के साथ हो और उस ग्रह के भाव को भी पीड़ित कर देता हो तब ही यह अशुभ फल देता है चाहे किसी भी ग्रह के साथ राहु हो।।
#उदाहरण2:- मेष लग्न कुंडली मे बुध तीसरे और छठे भाव का स्वामी होकर अकारक होता है लेकिन अगर बुध 8वे भाव मे यहाँ बैठ जाये तो विपरीत राजयोग कारक होता है तो राहु भी अगर बुध के साथ आठवे भाव मे बैठेगा तो विपरीत राजयोग कारक होकर दुगना शुभ फल देगा लेकिन अगेट बुध छठे भाव मे ही हो और राहु भी बुध के साथ छठे भाव मे बैठा हो तब यह बुध और छठे घर को पीड़ित करेगा और दिक्कते देगा। कुल मिलाकर राहु जिस भी ग्रह के साथ बैठा हो उस ग्रह के घर को पीड़ित दृष्टि से या बैठने से न करे तब यह उस ग्रह की स्थिति अच्छी है तब शुभ फल दुगने देगा और यदि जिस ग्रह के साथ बैठा है उस ग्रह की स्थिति सही नही है तब उसी ग्रह के अनुसार अशुभ फल देगा|
जातक की मानसिकता पर प्रभाव
मिथकीय कहानी के अनुसार राहू केवल सिर वाला भाग है। राहू गुप्त रहता है, राहू गूढ़ है, छिपा हुआ है, अपना भेष बदल सकता है, जो ढ़का हुआ वह सबकुछ राहू के अधीन है। भले ही पॉलीथिन से ढकी मिठाई हो या उल्टे घड़े के भीतर का स्पेस, कचौरी के भीतर का खाली स्थान हो या अंडरग्राउण्ड ये सभी राहू के कारकत्व में आते हैं। राहू की दशा अथवा अंतरदशा में जातक की मति ही भ्रष्ट होती है। चूंकि राहू का स्वभाव गूढ़ है, सो यह समस्याएं भी गूढ़ देता है।
जातक परेशानी में होता है, लेकिन यह परेशानी अधिकांशत: मानसिक फितूर के रूप में होती है। उसका कोई जमीनी आधार नहीं होता है। राहू के दौर में बीमारियां होती हैं, अधिकांशत: पेट और सिर से संबंधित, इन बीमारियों का कारण भी स्पष्ट नहीं हो पाता है।
इसी प्रकार राहू से पीडि़त व्यक्ति जब चिकित्सक के पास जाता है तो चिकित्सक प्रथम दृष्टया य निर्णय नहीं कर पाते हैं कि वास्तव में रोग क्या है, ऐसे में जांचें कराई जाती है, और आपको जानकर आश्चर्य होगा कि ऐसी मरीज जांच रिपोर्ट में बिल्कुल दुरुस्त पाए जाते हैं। बार बार चिकित्सक के चक्कर लगा रहे राहू के मरीज को आखिर चिकित्सक मानसिक शांति की दवाएं दे देते हैं।
राहू वात रोग पर भी अधिकार रखता है, राहू बिगड़ने पर जातक को मुख्य रूप से वात रोग विकार घेरते हैं, इसका परिणाम यह होता है कि गैस, एसिडिटी, जोड़ों में दर्द और वात रोग से संबंधित अन्य समस्याएं खड़ी हो जाती हैं।
राहू के आखिरी छह साल सबसे खराब होते हैं, इस दौर में जब जातक ज्योतिषी के पास आता है तब तक उसकी नींद प्रभावित हो चुकी होती है, यहां नींद प्रभावित का अर्थ केवल नींद उड़ना नहीं है, नींद लेने का चक्र प्रभावित होता है और नींद की क्वालिटी में गिरावट आती है। मंगल की दशा में जहां जातक बेसुध होकर सोता है, वहीं राहू में जातक की नींद हल्की हो जाती है, सोने के बावजूद उसे लगता है कि आस पास के वातावरण के प्रति वह सजग है, रात को देरी से सोता है और सुबह उठने पर हैंगओवर जैसी स्थिति रहती है। तुरंत सक्रिय नहीं हो पाता है।
राहू की तीनों प्रमुख समस्याएं यानी वात रोग, दिमागी फितूर और प्रभावित हुई नींद जातक के निर्णयों को प्रभावित करने लगते हैं। इसका नतीजा यह होता है कि जातक के प्रमुख निर्णय गलत होने लगते हैं। एक गलती को सुधारने की कोशिश में जातक दूसरी और तीसरी गलतियां करता चला जाता है और काफी गहरे तक फंस जाता है।
राहू की महादशा में अंतरदशाओं का क्रम:-
महर्षि पाराशर द्वारा प्रतिपादित विंशोत्तरी दशा (120 साल का दशा क्रम) के अनुसार किसी भी जातक की कुण्डली में राहू की महादशा 18 साल की आती है। विश्लेषण के स्तर पर देखा जाए तो राहू की दशा के मुख्य रूप से तीन भाग होते हैं। ये लगभग छह छह साल के तीन भाग हैं। राहू की महादशा में अंतरदशाएं इस क्रम में आती हैं राहू-गुरू-शनि-बुध-केतू-शुक्र-सूर्य- चंद्र और आखिर में मंगल। किसी भी महादशा की पहली अंतरदशा में उस महादशा का प्रभाव ठीक प्रकार नहीं आता है। इसे छिद्र दशा कहते हैं। राहू की महादशा के साथ भी ऐसा ही होता है। राहू की महादशा में राहू का अंतर जातक पर कोई खास दुष्प्रभाव नहीं डालता है। अगर कुण्डली में राहू कुछ अनुकूल स्थिति में बैठा हो तो प्रभाव और भी कम दिखाई देता है। राहू की महादशा में राहू का अंतर अधिकांशत: मंगल के प्रभाव में ही बीत जाता है।
राहू में राहू के अंतर के बाद गुरु, शनि, बुध आदि अंतरदशाएं आती हैं। किसी जातक की कुण्डली में गुरु बहुत अधिक खराब स्थिति में न हो तो राहू में गुरू का अंतर भी ठीक ठाक बीत जाता है, शनि की अंतरदशा भी कुण्डली में शनि की स्थिति पर निर्भर करती है, लेकिन अधिकांशत: शनि और बुध की अंतरदशाएं जातक को कुछ धन दे जाती हैं। इसके बाद राहू की महादशा में केतू का अंतर आता है, यह खराब ही होता है, मैंने आज तक किसी जातक की कुण्डली में राहू की महादशा में केतू का अंतर फलदायी नहीं देखा है। राहू में शुक्र कार्य का विस्तार करता है और कुछ क्षणिक सफलताएं देता है। इसके बाद का दौर सबसे खराब होता है। राहू में सूर्य, राहू में चंद्रमा और राहू में मंगल की अंतरदशाएं 90 प्रतिशत जातकों की कुण्डली में खराब ही होती हैं।
राहु महादशाफल-
राहु की गणना क्रूर व पाप ग्रह के रूप में की जाती है अतः इसकी दशा सामान्यतया अशुभफलप्रद ही मानी गई है। राहु वृष में उच्च का होता है जबकि इसकी मूलत्रिकोण राशि कुम्भ है। राहु की महादशा में जातक को सुख-धन-धान्य आदि की हानि, स्त्री-पुत्रादि के वियोग से उत्पन्न कष्ट, रोगों की अधिकता, प्रवास, झगड़ालू मानसिकता आदि अशुभ फल प्राप्त होते हैं। इस सन्दर्भ में यह ध्यातव्य है कि लग्नादि द्वादश भावों में राहु की स्थिति महादशा के फल को भी प्रभावित करती है।
विभिन्न भावों में स्थित राहु का दशाफल-
लग्न- ऐसे राहु की महादशा में जातक के सोचने समझने की शक्ति पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। विष, अग्नि तथा शस्त्रादि से इसके बान्धवों का विनाश होता है। मुकदमें तथा युद्ध में पराजय, दुःख, रोग और शोक की प्राप्ति भी होती है।
द्वितीय भाव- धन तथा राज्य की हानि, नीच स्वभाव तथा नीच कर्म वाले अधिकारी का अधीनस्थ होना, मानसिक रोग, असत्यभाषण और क्रोध की अधिकता रहती है।
तृतीय भाव- सन्तति, धन, स्त्री तथा सहोदरों का सुख, कृषि से लाभ, अधिकार मे वृद्धि,विदेश यात्रा और राजा से सम्मान मिलता है।
चतुर्थ भाव- माता अथवा स्वयं को मरणतुल्य कष्ट, कृषि व धन की हानि, राजप्रकोप, स्त्री की चारित्रक-भ्रष्टता, दुःख, चोर-अग्नि व बंधन का भय, मनोरोग, स्त्री-पुत्रदि को पीड़ा तथा सांसारिक सुखों से विरक्ति हो जाती है|
पञ्चम भाव- बुद्धिभ्रम, निर्णय लेने की क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव, उत्तम भोजन का अभाव, भूख की कमी, विद्या के क्षेत्र में विवाद, व्यर्थ का विवाद, राजभय तथा पुत्र हानि का भय होता है।
षष्ठ भाव- चोर, डाकू, लुटेरे, जेबकतरे, अग्नि, बिजली तथा राजप्रकोप का भय, श्रेष्ठ जनों की मृत्यु, प्रमेह, पाचनसंबंधी विकार, क्षयरोग, पित्तरोग, त्वचा विकार, एलर्जी तथा मृत्यु आदि का भय।
सप्तम भाव- पत्नी की आकस्मिक मृत्यु या मरणतुल्य कष्ट, अकारण तथा निष्फल प्रवास, कृषि तथा व्यवसाय में हानि, भाग्यहानि, सर्पभय तथा पुत्र व धन की हानि होती है।
अष्टम भाव- मरणतुल्य कष्ट, पुत्र तथा धन का नाश, चोर-डाकू, अग्नि तथा प्रशासन से भय, अपने लोगों से शत्रुता, विश्वासघात, स्थानच्युति तथा हिंसक पशुआें से भय की प्राप्ति होती है। इष्टबन्धुओं का नाश, स्त्री पुत्रादि को पीड़ा तथा व्रण भय।
नवम भाव- पिता की मृत्यु या मरण तुल्य कष्ट, दूर देश की अकारण यात्रा, गुरूजनों या प्रियजनों की मृत्यु, अवनति, पुत्र व धन की हानि तथा समुद्र स्नान के योग बनते हैं।
दशम भाव- यदि राहु पाप प्रभाव में हो तो कर्म के प्रति अनिच्छा का भाव, पुत्र-स्त्री आदि को कष्ट, अग्नि भय तथा कलंक लगना आदि अशुभ फल मिलते हैं। जबकि शुभ प्रभाव से युक्त राहु धर्म के प्रति आकर्षण उत्पन्न करता है।
एकादश भाव- शासन से सम्मान, पदोन्नति, धनलाभ, स्त्रीलाभ, आवास, कृषि भूमि आदि की प्राप्ति होती है|
द्वादश भाव- स्थानच्युति, मानसिक रोग, परिवार से वियोग, प्रवास, सन्तानहानि, कृषि में घाटा, पशु तथा धन-धान्य की चिंता बनी रहती है। व्रण भय, चोरभय, राजभय, स्त्री-पुत्रदि को पीड़ा तथा इष्ट बन्धुओं का नाश।
यदि राहु उच्च अर्थात् वृष राशि के हों तो अपनी महादशा में राज्याधिकार प्रदान करते हैं और साथ ही साथ मित्रवर्ग के सहयोग से जातक के धन-धान्य में भी प्रचुर मात्रा में वृद्धि होती है। राहु यदि शुभ तथा अशुभ दोनों ही प्रभावों से युक्त हों तो इनकी महादशा के आरम्भ में कष्ट, दशामध्य में सुख व यश प्राप्ति तथा दशा के अन्त में जातक को स्थानच्युति, गुरू व पुत्रादि संबंधी शोक प्राप्त होता है। इन कष्टों की शान्ति हेतु महर्षि पराशर ने राहु की अराधना-जप-दानादि शान्तिकारक कार्य शास्त्रोक्त विधान से कराने का आदेश दिया है, जिससे जातक को सम्पत्ति व आरोग्यादि का लाभ होता है-
‘‘सदा रोगो महाकष्टं शान्तिं कुर्याद्यथाविधि।
आरोग्यं सम्पदश्चैव भविष्यन्ति तदा द्विज।।’’
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बसंत पंचमी
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